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भाजपा के मौन के बीच लोजपा के जाने से नीतीश को कितना नुकसान? कहीं ऐसा न हो कि चुनाव बाद सरकार तो एनडीए की बने, लेकिन सीएम नीतीश न हों

सब कुछ वैसा ही हो रहा है जैसी उम्मीद जताई जा रही थी। चिराग पासवान ने नीतीश पर हमले से जो शुरुआत की थी, रविवार को उसकी पूर्णाहुति हो गई। लोजपा ने घोषणा कर दी कि वह हर उस सीट पर लड़ेगी, जहां जदयू प्रत्याशी होंगे।

भाजपा ने भी इस पूरे मामले में कोई प्रतिक्रिया नहीं देकर मुहर ही लगा दी। मतलब चुनावी बिसात पर खेलने के लिए ‘एक और एनडीए’ को मूक सहमति दे दी। वैसे मंशा तो ‘मोदी से कोई बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं’ वाले पोस्टर से शनिवार को ही साफ हो गई थी। मतलब एक ऐसी कहानी का प्लॉट तैयार है, जिसका क्लाइमैक्स अभी से समझा जा सकता है।

लोजपा पिछली बार 2 सीटें जीती थी, लेकिन 36 पर दूसरे और 2 पर तीसरे नंबर पर थी
अब जबकि लोजपा एनडीए से बाहर है और भाजपा-जदयू आधे-आधे पर लड़ने का फैसला कर चुके हैं, तो बहुत कुछ साफ है। लेकिन उतना भी साफ नहीं जितना दिखाई दे रहा है। पिछले चुनाव (2015) की बात करें तो भाजपा 157, जदयू 101 और लोजपा 42 सीटों पर लड़ी थी। तब भाजपा 53 सीटों पर जीती। 104 सीटें ऐसी थीं, जहां वह नम्बर 2 पर रही। आज के हालात में उसके हाथ में 121 या 122 से ऊपर सीटें नहीं हैं। ऐसे में जहां वह जदयू के साथ है वो तो ठीक, लेकिन जिन सीटों पर भाजपा खुद नहीं लड़ेगी, वहां क्या करेगी यह सोचने-समझने का विषय है।

जानकार कहते हैं कि ऐसी सीटों पर लोजपा लड़ रही होगी और पीछे से ही सही उसे भाजपा का ‘साथ’ हासिल होगा। लोजपा पिछली बार जिन 42 सीटों पर लड़ी थी उनमें से वह जीती भले ही 2 ही सीटें हो, लेकिन 36 पर दूसरे और सिर्फ 2 पर तीसरे नंबर पर रही थी। अगर इस गणित से देखें तो भाजपा की जीती और नंबर 2-3 की सीटें मिलाकर 155 होती हैं और लोजपा की जीती-हारी मिलाकर 42 हो जाती हैं। ऐसे में लोजपा का उत्साहित होना स्वाभाविक है। तब और भी ज्यादा जब बड़ा बनने को आतुर भाजपा का पीठ पर हाथ हो। यानी भाजपा और लोजपा के एक और दो नंबर को मिला दें तो ये अकेले 195 सीटों पर प्रभावित करती दिखाई देती हैं और इसमें भी भाजपा का अपर हैण्ड दिखाई देता है।

लोजपा भले ही ज्यादा सीटें न जीते, लेकिन जदयू का खेल जरूर बिगाड़ेगी
अरविन्द मोहन कहते हैं कि अगर लोजपा ज्यादा सीटें नहीं जीत सकी तो भी जदयू यानी नीतीश का काम इतना तो बिगाड़ ही देगी कि उनका उबरना आसान नहीं रह जाएगा। मतलब साफ है, लोजपा जीते या हारे, खेल नीतीश का खराब होगा और लड्डू भाजपा के हाथ होगा। फरवरी 2005 के चुनाव में भी लोजपा ने लालू राज के प्रति लोगों की नाराजगी का फायदा उठाते हुए राजद को बड़ा नुकसान पहुंचाया था। तब लालू यादव के शासन के 15 साल पूरे हुए थे और लोगों में एक स्वाभाविक नाराजगी थी।

अब नीतीश राज के 15 साल पूरे हो रहे हैं। लोजपा इस बार भी एंटी इनकम्बेंसी को कैश कराने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेगी। यह तो तय है कि नीतीश राज से स्वाभाविक रूप से नाराज एक वोटर ऐसा भी होगा जिसे तेजस्वी को देखते ही लालू राज का वह दौर याद आएगा जिसे ‘सवर्ण विरोधी’ और ‘अराजकता का प्रतीक’ बताया जाता रहा है। ऐसा वोटर अगर नीतीश को छोड़कर राजद को नहीं भी अपनाना चाहेगा तो लोजपा के रूप में उसे एक नया विकल्प दिखाई देगा। वरिष्ठ पत्रकार इन्द्र्जीत सिंह मानते हैं कि अब सवर्ण भी मानने लगा है कि लालू मंच पर जो भी बोलते रहे हों, अंदर से कभी नीतीश जैसे नहीं थे। नीतीश ने तो सब को नाराज ही किया है। दलों को भी, ‘दलपतियों’ को भी।

एनडीए से लोजपा के अलग होने पर भाजपा को 2 फायदे
आंकड़े बताते हैं कि जदयू-भाजपा गठबंधन का ज्यादा फायदा भाजपा को मिलता है। अगर भाजपा पर्याप्त सीटें निकाल ले गई और चिराग (भाजपा के बैकडोर समर्थन से) जदयू को ठीक-ठाक नुकसान पहुंचा सके तो दो सूरतें उभर सकती हैं। पहली- अगर भाजपा बड़ी पार्टी बनकर उभरी और जदयू का साथ रखना उनकी ‘नैतिक’ मजबूरी हुई तो वह ‘बड़ा भाई’ बनकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावा करना चाहेगी। दूसरी- अगर लोजपा किसी तरह 30 या उससे ऊपर सीट ला पाई तो नीतीश का खेल जितना खराब होगा, भाजपा का खेल उतना ही मजबूत।

यदि त्रिशंकु विधानसभा के हालात पैदा हुए तो खेल की एक सीटी भाजपा के हाथ में ही होगी, दूसरी लोजपा के हाथ। जानकार मानते हैं कि ऐसे में भाजपा नीतीश को मुख्यमंत्री नहीं देखना चाहेगी, और लोजपा का साथ उसे तभी मिलेगा जब मुख्यमंत्री का सेहरा नीतीश के सिर पर नहीं हो। इस हालात में भी भाजपा फायदे में ही रहेगी।

वरिष्ठ पत्रकार अम्बरीश की नजर में एक तीसरा विकल्प भी है, लेकिन यह तब की बात है जब गेम प्लान इतना सटीक बैठे कि भाजपा और लोजपा मिलकर ही सरकार बनाने की स्थिति में आ जाएं और नीतीश को किनारे लगाकर थोड़े बहुत जोड़तोड़ से अपनी सरकार बना लें। राजनीति में गठबंधन धर्म एक खूबसूरत जुमला भले हो, लेकिन चुनाव पूर्व और बाद में इस धर्म को धता बताने के तमाम उदाहरण हैं। 2005 से लेकर अब तक अकेले नीतीश कुमार ही ऐसे कई उदाहरण पेश कर चुके हैं।



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Bihar Election 2020; Chirag Paswan Vs Nitish Kumar | BJP Lok Janshakti Party- NDA Alliance Break-Up May Impact JDU Party Chief Nitish Kumar


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