मर्दों की दुनिया में औरत को हमेशा खुद को साबित करने के लिए मर्दों से दस गुना ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है
पिछले दिनों मीडिया और सोशल मीडिया पर एक तस्वीर वायरल हो रही थी। गाजियाबाद के मोदीनगर की एसडीएम सौम्या पांडे की। एक महीने के बच्चे को गोद में लिए वो अपनी डेस्क पर काम कर रही हैं। उनकी तारीफ में लिखा था कि वो चाहतीं तो छह महीने की मैटरनिटी लीव ले सकती थीं, लेकिन काम के प्रति समर्पण देखिए कि एक महीने में ही काम पर लौट आईं।
ज्यादातर मर्द और कुछ औरतें भी तारीफ में लहालोट हुए जा रहीं थीं। एक तरफ मातृत्व का महिमामंडन हो रहा था, दूसरी ओर काम के प्रति समर्पण का। और मुझे लगा कि दोनों ही मामलों में हम औरतों को बड़ी चालाकी से बेवकूफ बनाया जा रहा है और हम मुस्कुराकर बन भी रही हैं।
उस तस्वीर की तह में उतरने से पहले जरा ये दो वाकये सुनिए। दिल्ली की एक भीड़भाड़ भरे मेट्रो स्टेशन पर मेटल डिटेक्टर के पास एक औरत खड़ी औरतों की चेकिंग कर रही थी। उसका फूला हुआ पेट बता रहा था कि वो प्रेग्नेंट है। बीच में थोड़ा मौका मिलते ही वो बैठने की कोशिश करती, लेकिन तभी कोई आ जाता और उसे खड़ा होना पड़ता। मैं काफी देर वहां खड़ी उसे देखती रही। फिर पूछा, आप ये सात महीने का पेट लेकर आठ घंटे खड़ी रहती हैं। उसने हां में सिर हिलाया। मैंने पूछा, आपका डिपार्टमेंट आपको कोई ऐसा काम नहीं दे सकता, जिसमें आप कुर्सी-मेज पर बैठकर काम कर सकें। उसका चेहरा उदास हो गया। बोली, ऐसा कहो तो मर्दों को लगता है कि औरतें कामचोर होती हैं।
कई साल पहले मैंने जून की तपती दोपहरी में भारी पेट लिए एक प्रेग्नेंट ट्रैफिक पुलिस वाली महिला को प्रगति मैदान के भीड़भरे चौराहे पर ट्रैफिक कंट्रोल करते देखा। उस महिला के डिपार्टमेंट के मर्दों को भी नहीं लगता कि कम से कम अपने पेट में बच्चा लिए औरत को तो भरी दोपहर आठ घंटे बीच चौराहे पर खड़े नहीं रहना चाहिए।
सौम्या पांडे की तस्वीर पर सलाम ठोंक रहे ये वही मर्द हैं, जिन्हें ये कभी समझ नहीं आएगा कि एक इंसान ने अभी एक महीने पहले अपने शरीर से एक समूचा इंसान पैदा किया है। नौ महीने तक उसे अपने गर्भ में रखा था। इस बीच शरीर में इतने उतार-चढ़ाव, हार्मोनल बदलाव हुए होंगे। उस शरीर को वापस अपनी पुरानी अवस्था में लौटने, अपनी खोई ताकत हासिल करने में वक्त लगेगा। उसे इस वक्त प्यार और आराम की जरूरत है। न कि एक महीने के नवजात को गोद में उठाए काम पर वापस आने की, क्योंकि मर्दों की दुनिया में उसे ये साबित करना है कि वो कामचोर नहीं है। क्योंकि औरतों को हमेशा खुद को साबित करने के लिए मर्दों से दस गुना ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है।
हर दफ्तर में मैटरनिटी लीव लेने वाली औरतों के लिए मर्द ये कहते पाए जाते हैं कि ये तो मजे की छुट्टी बिताकर आई है। पूरे समय मुफ्त की तनख्वाह लेती रही। हमारे देश में आज भी ज्यादातर मर्दों को लगता है कि मैटरनिटी लीव औरत की जरूरत नहीं, बल्कि उन पर किया गया कोई एहसान है।
यह समझने के लिए राॅकेट साइंटिस्ट होने की जरूरत नहीं कि अपने गर्भ में नए जीवन को धारण की हुई स्त्री दस घंटे नहीं खड़ी रह सकती। प्रसव के एक महीने बाद बच्चे को छोड़कर काम पर नहीं आ सकती। उसे नहीं आना चाहिए। वो अभी भी अपने बच्चे को दूध पिला रही है और ये करना न कामचोरी है, न मुफ्त की तनख्वाह। इजाडोरा डंकन ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि संसार की सब मांओं को धरती के सबसे सुंदर कोनों पर छोड़ दिया जाना चाहिए।
संसार की सबसे प्यारी किताबें, सबसे मीठा संगीत, सबसे उन्नत कलाएं, उनके लिए होनी चाहिए। यह तो किसी सपने जैसी बात लगती है। इतना न भी हो तो कम-से-कम ये तो हो कि अपने पेट में बच्चा लिए एक औरत के मन में यह डर न हो कि लोग उसे कमजोर समझेंगे, कामचोर बुलाएंगे। उसके सिर पर उस वक्त भी दफ्तर में खुद को साबित करने का बोझ न हो, मन में नौकरी खो देने का डर न हो, कॅरियर में पिछड़ जाने की चिंता न हो।
बच्चा पैदा करना कोई निजी काम नहीं है। वह एक सामाजिक कर्म है। यह सिर्फ एक स्त्री-पुरुष और उसके परिवार की चिंता का सवाल नहीं है। यह पूरे समाज की चिंता का सवाल है। धरती पर जन्म लेने वाला हर मनुष्य कल को इस देश का, इस समाज का नागरिक होगा। अपने अच्छे-बुरे हर रूप में वह इस समाज में अपना योगदान देगा। किसी बच्चे को मां-पिता संदूक में बंद करके नहीं रखते। वो इस दुनिया में जाता है और दुनिया का होता है। इसलिए ये इस दुनिया की भी जिम्मेदारी है कि जन्म के पहले दिन से नहीं, गर्भ में आने के दिन से उसकी परवाह की जाए।
स्वीडन, नाॅर्वे, फिनलैंड, जर्मनी और क्रोएशिया जैसे देशों में 14 महीने से लेकर 24 महीने तक की मैटरनिटी लीव का प्रावधान है और इतनी ही छुट्टी पिता को भी मिलती है। वो देश न सिर्फ अपनी स्त्रियों, बल्कि अपने नागरिकों के प्रति ज्यादा जिम्मेदार हैं। बच्चा घर का सोफासेट नहीं है। बच्चा भविष्य का नागरिक है। उसका मानसिक, शारीरिक स्वास्थ्य, उसका बेहतर जीवन पूरे समाज की जिम्मेदारी है।
सौम्या पांडे की वह तस्वीर कई स्तरों पर दिक्कत तलब है। एक तो कोरोना महामारी के समय एक महीने के बच्चे को अपने साथ ऑफिस लेकर आना निहायत गैरजिम्मेदारी भरा है। दूसरा वह बाकी महिलाओं के लिए गलत उदाहरण पेश कर रही हैं, जो समाज में उनकी तरह प्रिविलेज्ड नहीं हैं। जिनके पास ड्राइवर वाली गाड़ी, बाकी कामों के लिए दस नौकर-चाकर नहीं हैं। जिन्हें दफ्तर से घर जाकर घर के काम करने पड़ते हैं, रोते हुए बच्चे के साथ पूरी-पूरी रात जागना पड़ता है और सुबह उनींदी, अधमरी हालत में दफ्तर पहुंचना पड़ता है।
और इन सारी सच्चाइयों को पूरी बेशर्मी के साथ अनदेखा करके मर्द उस तस्वीर पर सलाम ठोंकने, नमन करने चले आते हैं। मर्द तो बच्चा भी पैदा नहीं करते, न हर महीने इनके शरीर से खून रिसता है, फिर भी दफ्तर से घर पहुंचने के बाद एक गिलास भी नहीं हिला सकते। और घर-बाहर सबका बोझ अकेले उठा रही औरत से अब उम्मीद कर रहे हैं कि वो बच्चा पैदा करके तुरंत भागी हुई काम पर लौट आए। क्या इतना मुश्किल है बस थोड़ा सा ईमानदार, थोड़ा सा संवेदनशील, बस थोड़ा सा इंसान हो पाना।
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