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विपक्ष में रहते हुए भाजपा नेताओं को एमनेस्टी इंटरनेशनल से हिम्मत मिलती थी तो सत्ता में आने के बाद यही संस्था खटकने क्यों लगी है

जनवरी 1977 की बात है। देश में आपातकाल लागू था और विपक्ष के तमाम बड़े नेता जेलों में कैद कर दिए गए थे। लाल कृष्ण आडवाणी भी इनमें से एक थे, जो उस दौरान बैंगलोर सेंट्रल जेल में क़ैद थे। इस जेल प्रवास के दौरान आडवाणी नियमित रूप से डायरी लिखा करते थे। यही डायरी आगे चलकर उनकी चर्चित किताब ‘ए प्रिजनर्स स्क्रैप बुक’ के रूप में प्रकाशित हुई।

इस किताब में 18 जनवरी 1977 की घटना का जिक्र करते हुए आडवाणी लिखते हैं, ‘करीब साढ़े पांच बजे जब में अपने कमरे में लौटा तो मैंने देखा कि मेज़ पर चिट्ठियों का एक ढेर लगा हुआ है। वो छह सौ से भी ज़्यादा चिट्ठियां थी। लगभग सभी विदेश से आई थी और एमनेस्टी इंटरनेशनल के सदस्यों और समर्थकों द्वारा भेजी गई थी। इनमें से अधिकतर क्रिसमस और नए साल की बधाई के ग्रीटिंग थे। लेकिन, सभी में एक-दो पंक्तियां ऐसी लिखी थी, जिससे हम सभी को दमन के खिलाफ लड़ने की हिम्मत, आत्मविश्वास और उम्मीद मिली।’

लाल कृष्ण आडवाणी उस वक्त भारतीय जनसंघ के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे। वही भारतीय जनसंघ जिससे आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी बनी और जिसकी आज देश में बेहद मज़बूत सरकार है। लेकिन, एमनेस्टी इंटरनेशनल की जो गतिविधियां उस दौर में जनसंघ के नेताओं को हिम्मत और उम्मीद दिया करती थी, वही गतिविधियां अब भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को अखरने लगी हैं।

बीते कई दशकों से देश में मानवाधिकार के मुद्दों पर काम करने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने हाल ही में यहां अपना काम बंद करने की घोषणा की है। संस्था ने आरोप लगाया है कि केंद्र सरकार झूठे मामले बनाकर उनका काम लगातार मुश्किल कर रही है। बीती 10 सितंबर को एमनेस्टी इंटरनेशनल के सभी बैंक खातों को फ्रीज कर दिया गया था, जिसके बाद संस्था ने अपना काम बंद करने की घोषणा की।

केंद्र सरकार का कहना है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल ने विदेशी पैसा लेते हुए नियमों का उल्लंघन किया है। सरकार का दावा है कि संस्था ने विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम और विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन किया है जिसके चलते उस पर कार्रवाई हुई है।

दूसरी तरफ एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक अविनाश कुमार कहते हैं कि संस्था के खातों पर रोक लगाया जाना कोई आकस्मिक घटना नहीं है। बीते दो साल से केंद्र सरकार लगातार अलग-अलग माध्यमों से संस्था का उत्पीड़न कर रही थी।

वे यह भी मानते हैं कि हाल के दौर में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने जिस बेबाकी से दिल्ली दंगों में पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाए हैं और जिस तरह से कश्मीर में मानवाधिकार हनन के मामलों पर बोला है, उससे केंद्र सरकार को सबसे ज़्यादा परेशानी हुई है।

वैसे ये पहला मौका नहीं है जब एमनेस्टी इंटरनेशनल के खिलाफ इस तरह की कोई कार्रवाई हुई है। यूपीए सरकार के कार्यकाल में भी इस संस्था पर कई तरह के सवाल उठ चुके हैं और नियमों का उल्लंघन करते हुए विदेशी पैसा लेने और विदेशी एजेंडे पर काम करने के आरोप लग चुके हैं।

साल 2009 में एमनेस्टी इंटरनेशनल को तब देश में अपना काम बंद करना पड़ा था, जब संस्था का एफसीआरए लाइसेन्स रद्द कर दिया गया था। इसके बाद 2012 में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भारत में अपना काम दोबारा शुरू किया था।

आपातकाल के दौरान एमनेस्टी इंटरनेशनल ने जयप्रकाश नारायण, मोररजी देसाई और लाल कृष्ण आडवाणी जैसे तमाम नेताओं की रिहाई के लिए अभियान चलाए।

एमनेस्टी इंटरनेशनल के साथ काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार महताब आलम बताते हैं, ‘ये बात सही है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल के पास एफसीआरए लाइसेंस नहीं है। किसी भी एनजीओ को विदेशी पैसा लेने के लिए यह लाइसेंस जरूरी होता है। लेकिन, एमनेस्टी इंटरनेशनल साल 2012 से ही भारतीय दानदाताओं के पैसे से चल रहा है और यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। संस्था की वेबसाइट पर ही पूरा ब्यौरा मौजूद है कि उसकी कितनी शाखाएं यहां चल रही हैं और इनका पैसा कहां से आता है।’

महताब आगे कहते हैं, ‘वित्तीय मामलों में किसी भी अंतरराष्ट्रीय संस्था को फंसाना सरकारों के लिए हमेशा से बेहद आसान तरीका रहा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल पहली ऐसी संस्था नहीं है। इससे पहले भी पर्यावरण पर काम करने वाली या मानवाधिकार मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं ओ इस तरह के आरोप लगाकर बंद करने के प्रयास सरकारें करती रही हैं।'

मानवाधिकार के मुद्दों पर देशी-विदेशी कई संस्थाएं काम कर रही हैं। ऐसे में सिर्फ एमनेस्टी इंटरनेशनल को ही सरकार क्यों निशाना बना रही है? इस सवाल के जवाब में महताब आलम कहते हैं, 'इसके दो प्रमुख कारण समझ में आते हैं। पहला तो जिस तरह से इस संस्था ने दिल्ली दंगों और कश्मीर के मामले में काम किया है वह सरकार पर कई गम्भीर सवाल खड़े करता है। दूसरा, एमनेस्टी इंटरनेशनल एक प्रतिष्ठित संस्था है, जिसकी रिपोर्ट्स को दुनिया भर में बेहद गम्भीरता से लिया जाता है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल अपनी जो रिपोर्ट जारी करती है, उसमें भले ही नया कुछ न हो लेकिन वो तथ्यात्मक रूप से बेहद मजबूत होती हैं। उनकी रिपोर्ट में उठाए गए सवाल अकाट्य होते हैं और इसलिए सरकार को परेशान करते हैं। बीते दो सालों में जिस तरह से एमनेस्टी इंटरनेशनल ने अपनी रिपोर्ट्स कश्मीर के सवालों को उठाया है उससे दुनिया भर में भारत की वो छवि बनी है जो केंद्र सरकार को पसंद नहीं।’

एमनेस्टी इंटरनेशनल पर कभी विकास विरोधी होने, कभी एंटी-नेशनल होने तो कभी भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने के आरोप लगते रहे हैं। इस संस्था ने जब कुडनकुलम में न्यूक्लियर प्लांट का विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं के हक में आवाज़ उठाई तो इस पर विदेशी एजेंडा चलाने के आरोप लगे, संस्था ने जब बड़े पूंजीपतियों द्वारा आदिवासियों की जमीन अधिग्रहित करने का मामला उठाया तो इसे विकास-विरोधी कहा गया और संस्था ने जब मृत्यदंड का विरोध करते हुए अजमल कसाब की फांसी पर रोक की मांग की तो इसे एंटी-नेशनल कहा गया।

हाल ही में एमनेस्टी ने अपनी रिपोर्ट में दिल्ली दंगों और कश्मीर को लेकर बात कही है वह सरकार पर कई गम्भीर सवाल खड़े करती है।

लेकिन, तमाम विरोध के बावजूद भी संस्था को ऐसे कई लोगों का समर्थन मिलता रहा जो मानवाधिकार कि रक्षा को सबसे ऊपर मानते आए हैं। समय-समय पर राजनीतिक कारणों से विपक्ष भी हमेशा एमनेस्टी इंटरनेशनल के साथ ही खड़ा दिखा है।

भाजपा जब विपक्ष में थी तो एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा तत्कालीन सरकार की ग़लत नीतियों को उजागर करने पर वह अधिकतर संस्था के साथ दिखा करती थी। ठीक वैसे ही जैसे आज कांग्रेस के कई नेता एमनेस्टी इंटरनेशनल के पक्ष में दिखाई देते हैं जबकि उन्होंने अपनी सरकार रहते हुए कई बार एमनेस्टी इंटरनेशनल पर यही तमाम आरोप लगाए थे।

आपातकाल के दौरान एमनेस्टी इंटरनेशनल ने जयप्रकाश नारायण, मोररजी देसाई और लाल कृष्ण आडवाणी जैसे तमाम नेताओं की रिहाई के लिए अभियान चलाए। ये अभियान तत्कालीन इंदिरा सरकार को पसंद नहीं थे लेकिन जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो प्रधानमंत्री नियुक्त हुए मोररजी देसाई ने एमनेस्टी इंटरनेशनल के प्रयासों की खुलकर प्रशंसा की थी।

ठीक ऐसे ही अभियान अब एमनेस्टी इंटरनेशनल भीमा-कोरेगांव मामले में गिरफ़्तार किए गए कई सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए भी चला रही थी। ये अभियान आज के विपक्ष को तो सही लगते हैं लेकिन सत्ताधारी पार्टी और केंद्र सरकार को ऐसे अभियान देश के आंतरिक मामलों में दख़ल नज़र आते हैं।

इन तमाम पहलुओं के बावजूद भी एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाओं का होना और बने रहना बेहद अहम है। यही कारण है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी इस मामले में स्वतः संज्ञान लेते हुए केंद्रीय गृह सचिव से जवाब तलब किया है।

आयोग ने कहा है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल एक प्रतिष्ठित संस्था है जो दुनिया भर में मानवाधिकार के मामलों पर काम कर रही है। संस्था ने जो आरोप केंद्र सरकार पर लगाए हैं, उन पर केंद्रीय गृह मंत्रालय से सफाई मांगते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने छह हफ्ते के भीतर जवाब दाखिल करने को कहा है।



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बीती 10 सितंबर को एमनेस्टी इंटरनेशनल के सभी बैंक खातों को फ्रीज कर दिया गया था, जिसके बाद संस्था ने अपना काम बंद करने की घोषणा की। 


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