पिछले 10 दिनों में लगातार टेस्टिंग बढ़ाने के बावजूद नए केस कम हुए हैं, इसे हम पीक कह सकते हैं, हालांकि क्या यही पीक रहेगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता
कोरोना मरीजों में आमतौर पर ठीक होने पर एंटीबॉडीज डेवलप हो जाते हैं। लेकिन जो एंटीबॉडी डेवलप होते हैं वो कुछ महीनों के बाद कम भी होने लगते हैं। कोरोनावायरस से पहले इस तरह के जितने भी संक्रमण आए हैं, उनमें संक्रमित व्यक्ति के शरीर में एंटीबॉडी लंबे समय तक बने रहते थे। लेकिन कोरोनावायरस के मामले में पूरी दुनिया से यह डेटा आ रहा है कि संक्रमित व्यक्ति के शरीर में करीब 3 माह तक इसके एंटीबॉडी रहते हैं।
साथ ही बॉडी का नैचुरल रेस्पॉन्स अभी तक क्लीयर नहीं है। जब सेरो सर्वे की शुरुआत हुई थी, तब इसमें नंबर ज्यादा था लेकिन उसका सैंपल साइज कम था। इस बार सैंपल साइज बड़ा है, जिससे हमें यह पता चला है कि हर्ड इम्यूनिटी कम हो रही है। इसलिए लोगों को समझना बहुत जरूरी हो गया है कि हर्ड इम्यूनिटी अभी पूरी तरह डेवलप नहीं हई है।
हालांकि यह जो बात कही जा रही है, वह पिछले करीब 3 माह के साक्ष्यों के आधार पर ही है। आने वाले समय में जब इसपर रिसर्च बढ़ेगा, तब हमें पता चल सकेगा कि क्या कोरोना मरीज के शरीर में एंटीबॉडी तीन माह के लिए ही डेवलप हो रही है या फिर इससे ज्यादा समय के लिए।
हालांकि इस बात का यह मतलब कतई नहीं है कि जिन्हें कोविड-19 हो गया है, उन्हें इसके दोबारा होने की आशंका नहीं है, क्योंकि शरीर में कोरोना के खिलाफ एंटीबॉडी केवल 3 माह के लिए है। वहीं दोबारा संक्रमित होना एक अलग चीज है।
इस विषय पर अभी और अध्ययन किया जा रहा है क्योंकि अब तक दुनियाभर में जिन लोगों में दोबारा कोरोना संक्रमण के मामले सामने आए हैं, उनमें यह नहीं कहा जा सकता है कि वो दोबारा वायरस की चपेट में आए हैं या उनके शरीर में वह वायरस लोड ही पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था और अब दोबारा बढ़ गया है, जिसके बारे में उन्हें पहली बार संक्रमित होने पर पता चला था।
यही कारण है कि रीइंफेक्शन (दोबारा संक्रमण) के केस अभी बेहद कम हैं। अगर भारत की बात करें तो अब समय आ गया है कि हम देश में सुपर स्प्रेडर को ट्रेस करने की रणनीति पर काम करें।
कोरोनावायरस के मामले में कहा गया है कि लगभग 8 फीसदी लोगों ने ही करीब 60 फीसदी लोगों को संक्रमित किया है।
कुछ ऐसा ही 2003 में सार्स वायरस के समय भी देखा गया था। तब भी करीब 6 फीसदी लोगों ने 80 फीसदी लोगों को संक्रमित किया था। उस समय अधिकांश लोग अन्य लोगों को संक्रमित नहीं कर रहे थे, लेकिन कुछ लोग बहुत ज्यादा संक्रमण फैला रहे थे।
इसलिए अब हमें राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे क्लस्टर को पहचानने की रणनीति बनानी चाहिए। जापान ने ऐसा ही किया गया है। यही वजह है कि जापान ने कोरोना काल में भी कभी नेशनल लॉकडाउन नहीं किया। उन्होंने एक-एक करके लोगों को ट्रेस करने की बजाय सुपर स्प्रेडर्स को पहचानने पर सबसे ज्यादा जोर दिया।
ऐसे ही हमारे देश में देखें तो चेन्नई में फूलों के बाजार से बहुत ज्यादा केस फैले। इस मार्केट में ज्यादातर लोग चिल्ला-चिल्लाकर बातें करते हैं, ऐसी जगहों पर अक्सर संक्रमण का खतरा काफी बढ़ जाता है क्योंकि तेज बोलने से ज्यादा मात्रा में एयरोसोल्स हवा में जाते हैं। इस समय अगर ऐसी जगह से कोरोना संक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं तो हमें इन्हें पहले ही रोकना होगा।
इसे क्लस्टर बस्टर कहते हैं। इसमें सुपर स्प्रेडर की पहचान की जाती है और उन्हें आइसोलेट करना होता है। अभी हम अधिकांश जांच उन लोगों की करते हैं, जिनमें कोरोना के लक्षण दिखाई देते हैं या फिर उनकी किसी कोरोना पॉजिटिव के संपर्क में आने की कोई हिस्ट्री होती है।
इस समय हमें हर चीज एक संदर्भ में देखनी चाहिए। आज दुनिया में कोरोनावायरस के कारण होने वाली मौतों में भारत का आंकड़ा देखें तो यह 20 फीसदी के करीब है। लेकिन यह हमारी जनसंख्या ज्यादा होने के कारण है। यदि प्रति दस लाख जनसंख्या के आधार पर देश में हो रही मौतों का आंकड़ा देखें तो वास्तविक तस्वीर समझ आती है।
इस हिसाब से हम दुनिया में 67वें नंबर पर हैं। पेरू जैसे देश में प्रति दस लाख जनसंख्या पर 982 लोगों की मौत हो रही। जो भारत के प्रति दस लाख लोगों पर 71 मौतों से काफी ज्यादा है। एक नई बात यह भी है कि अब आंकड़ों को देखें तो कह सकते हैं कि भारत ने अपना पहला पीक पार कर लिया है। जब आप टेस्टिंग घटाते हैं तो केस कम हो सकते हैं।
जैसा पाकिस्तान और ब्राजील आदि में किया गया है लेकिन हमारे यहां पिछले 10 दिनों में लगातार टेस्टिंग बढ़ाने के बावजूद नए केस कम हुए हैं। इसी को हम पीक कह सकते हैं। हालांकि क्या यही पीक रहेगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि अभी देश में त्योहारों का लंबा समय आने वाला है। इसलिए यहां पर हमें बेहद सतर्क रहना होगा ताकि केसों पर नियंत्रण किया जा सके। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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